Mar 23, 2013
Oct 28, 2011
Apr 1, 2011
Jan 22, 2011
रंग
कुछ कम कुछ अधुरा है
क्यों दुखने पर ही होता कुछ नया है
या फिर मासूमीयत के उतारते रंग से कुछ छिला है
कितने बार उन रंगों को फिर निखारेगे
कभी तो उनपे भी निशान छोड़ जायेगे हादसे
पर शायद उन आधे उखड़े
यहाँ वहां बिखरे
कुछ कच्चे कुछ पक्के
रंगों से उभरे कोई खूबसूरत तस्वीर नयी
पर जब तक पूरी ना होगी ये तस्वीर
कैसे मान लू की ये रंग अपनी जगह खुबसूरत नहीं
Jan 3, 2011
Science as main headline
Avoid illiberal use of science, says Manmohanvia The Hindu
More than the content of the articleI like the fact that science confrence is the main headline. It seem we have come to the turn where we(India) are actually thinking about R&D on large scale not just far and few in between.
Sep 13, 2010
छलके क्यों है आखों से ये आसू जब मिटा है आज ये गम
रुके क्यों है ये कदम जब नज़र आने लगी है मजिल
पलट के क्यों देखती है ज़िन्दगी जब अगले मोड़ पे है खुशियाँ
क्यों थामे है ये मन वो कच्चे धागे
जो सिर्फ कसक दे जाते है दिल को
क्यों दुखता है ये मन उन यादो को छोड़ते हुए
जब उन यादो ने किये सिर्फ आख़े नाम
May 13, 2010
May 8, 2010
रुख जाना है कितना आसान पर ये नहीं है पूर्ण विराम
कुछ बातें अधूरी रह जाती है
कुछ यादें बार बार लौट आती है
मंज़िल्लो की जगह मोड़ और रास्तो की जगह ठहराव
कोशिस और आशा दोनों एक पंथ के दो काज
ना जाने आशा ने पहेले छोड़ा साथ
या कोशिस ने मानी हार
सवालो की जगह जवाब और उनमें उलझे ना जाने कितने सवाल
रुख जाना होगा कितना आसान
पर
शायद इस कहानी की होगी बिलकुल अलग आवाज़
शायद जो यादे लोटी उनसे करनी होगी मुझे मुलाकात
शायद बस एक मोड़ और
शायद ना कोशिश ना आशा बस कर्म देगे साथ
शायद नहीं ढूढने मुझे सवालों के जवाब
सच रुख जाना है कितना आसान
पर
जिस कहानी के किरदारों ने दी है चोट हज़ार
वाही किसी ने दी है सहने की शक्ति तमाम
यादो को चुनने की
हेर मूड से गुजरने की
आशाओं के टूटने पे कोशिश करते रहने की
उठे सवालो के जवाब कर्म से देने की
पर ये नहीं है पूर्ण विराम
कहानी किरदार यादे
मोड़ मज़िले
सवाल
फिर गुज़रे गे |
Mar 22, 2010
कभी पहेले खुद को रोका ना था
तुमसे बातें करने को इतना सोचा ना था
गुज़रता तुमको जो देखा, तो दिल ने चाहा ना जाने क्या
क्यों खिचती है अपनी ओर आखे तेरी
वो कुछ धुन्दले से स्पर्श का एहसास
अधि अधूरी बातो की वो खनकार
क्यों करना चाहू तुमपे ऐतबार
Nov 3, 2009
और हम चाहते भी है...
कोशिश जरी है,
कदम अग्रसर है,
धुन्दती आखें नमी कुशी की है,
वक्त है जो ये ज्हकम भी भर देगा अगर हम चाहे तो,
और हम चाहते भी है.
This was inspired as a response to the comment in incomplete... :) thanks for the positivity
Oct 28, 2009
Oct 23, 2009
Incomplete
इतनी भीड़ में भी है तनहाई
इतनी आवाज़ में भी है खोमाशी
कितनी रहे है पर मंजिल फ़िर भी नही
सब है उन्ही रहो के रही पर हमसफ़र नही
चहरे कितने पर आखों में वो अपनापन नही
दोस्त कितने है पर शुब्चिन्तक नही
Aug 10, 2009
May 15, 2009
Here I go again....
Another trial in life is about to begin and see how well I survive this time....